बस, इतनी सी बात

‘कविता:छत्तीसगढ़’ के सामने एक स्वाभाविक प्रश्न इस संकलन की जरूरत से जुड़ा हुआ है। जरूरत से कुछ अधिक, इसके औचित्य से जुड़ा हुआ है। हमारे आज के, सामयिक संदर्भ में यह औचित्य कविता में इलाकेदारी की बात उठाता है और उसके पक्ष-विपक्ष पर विचार भी आमंत्रित करता हैं। यह एक बड़ी जिम्मेदारी की बात है। यह किसी एक व्यक्ति की दिमागी हलचल के बूते से बाहर की बात है। इस पर मिल-जुल कर बैठना होगा और खुलकर संवाद करना होगा। अकेले, कविता के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि कुल रचनाकर्म के संदर्भ में। क्योंकि यह पूरे रचना, कुल की बात है। यह संकलित प्रयास भी छत्तीसगढ़ में कविता के मानकों की तलाश नहीं, बल्कि एक परिवारिकता को समेटने का और इस परिवार की स्थापित पहिचान और नयी संभावनाओं को एक पारिवारिक पारस्परिकता में जोड़ने का विनम्र प्रयास है।

इस आशंका को खारिज भी नहीं किया जा सकता कि इसे एक भावनात्मक, और उससे भी अधिक, आदर्शवादी स्थिति की तलाश करार दिया जा सकता है। इसके बावजूद इसकी अनिवार्यता इसलिये बनती है कि बात सुनी ही नहीं जा रही है। एक हताशा है। इस हताशा में लोगों ने बात करना ही बंद कर दिया है। इधर बात बंद है । उधर बात सुनी नहीं जा रही है। तो संवाद कैसे हो ? और संवाद की यह जरूरत, अपने छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व में आने की तारीख से लेकर अब तक प्रतिदिन बढ़ी है। राज्य की सत्ता में रचनात्मकता की भूमिका और उसकी महत्ता को समझाने के लिये खुले संवाद की जरूरत अनिवार्यता की हद तक होती है। लेकिन, इसे खारिज करने की हद तक नकारा जा रहा है। रचना की शक्तियों के मुकाबले छद्म रचनात्मकता को राज्याश्रय में पनपाया जा रहा है। यह एक घातक कुचक्र है जो रचना संभावनाओं के लिये विकास के अवसरों को अवरूद्ध करने की नियत से रचा जा रहा है और हमारे ऐसे बड़े नामों को छोटा करने का ओछापन भी है, जिन बड़े नामों से हमारी पहिचान बनती है । वह छत्तीसगढ़ की पहिचान भी होती है।

कविता में इलाकेदारी की बात, दरअसल, पूरे साहित्य संदर्भो के साथ उठती है। छत्तीसगढ़ में साहित्य के संदर्भ में कुछ लोग जिम्मेदारी के साथ बात कर रहे हैं, बावजूद इसके कि बात सुनी नहीं जा रही है। और अपनी बात बेबाकी के साथ कह रहे हैं, ताकि बातें शुरू हों। कनक तिवारी उनमे से एक हैं।
साहित्य की संकीर्ण भौगोलिकता रचकर की जाने वाली राजनीतिक क्षुद्रता से जुड़ी हुई कुछ बुनियादी बातों की तरफ उन्होंने ध्यान दिलाया है। इस भौगोलिकता का संबंध यदि हमारी आंचलिक रचनात्मक शक्ति से होता तो यह हमारी राष्ट्रीोय पहिचान होती । लेकिन ऐसा न होकर यह भौगोलिक संदर्भ, वांछित के विरूद्ध एक ओछी क्षेत्रीयतावादी वांछितता के लिये चलाये जा रहे कुचक्र में सिमट गया । इससे हमारी आंचलिक रचनात्मक शक्तियों का विकास और उनकी संभावनाएं अवरूद्ध हुई है’ । कनक तिवारी कभी मेरे मित्र रहे हैं, लेकिन आज उनके साथ मेरे रिश्ते बातचीत के नहीं हैं। फिर भी यह सच है कि उनकी चिन्ताओं ने और उनके ध्यानाकर्शण ने मुझे बात कहने के लिये उकसाया। और यह भी सच है कि जिन बुनियादी बातों की तरफ कनक ने ध्यान दिलाया, उन बातों ने मुझे, साहित्य में इलाकेदारी की बात को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने के लिये मजबूत जमीन भी मुहैय्या करायी।
साहित्य की इलाकेदारी को लेकर, प्रमोद वर्मा ने भी अपने जीवन काल में, किसी न किसी रूप में बातों की शुरूआत की थी। छत्तीसगढ़ में रचनाकर्म के संदर्भ में उनकी चिन्ता इस बात पर बनने लगी थी कि अपने मूल्यांकन के प्रति हमारे यहां अपेक्षित सजगता नहीं रही। और कुछ अन्यान्य आग्रह-दुराग्रह भी रहे कि छत्तीसगढ़ में रचे जा रहे साहित्य को आलोचना में अपेक्षित जगह नहीं मिल पायी। स्व. प्रमोद वर्मा की इस चिन्ता को इस अर्थ में भी ग्रहण किया गया कि छत्तीसगढ़ के पाप अपना, खुद का आलोचना संस्थान होना चाहिये।

प्रमोद वर्मा की उस दूर दृष्टि पर, व्यापक भी और गहन भी, सार्थक संवाद होता और सहमतियों के आधार सुनिश्चित हो पाते इसके पहले ही दुर्घटना घटी और प्रमोद जी नहीं अपने राज्य के दायित्यपूर्ण अर्थों से रहे। नासमझ आकांक्षाओं की जबर्दस्त आपाधापी ने हमारे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय साहित्य लेखन के सामने धुंधलके की ऐसी आड़ खड़ी कर दी कि जो साफ-सुथरा है वह नजर न आये। ऐसी आपाधापी किसी नासमझी में नहीं होती बल्कि वह, रचना के अर्थो से नासमझ लोगों की सामूहिकता में की गई कूट रचना होती है। और यह कूट रचना, रचना के इलाके में अराजकता पैदा करने लिये की जाती है। अराजकता के ऐसे ही समय में, एक बहुत बड़े जलसे में, जिसे अति उत्साही लोगों ने ‘साहित्य का मेगा शो ‘ कहा, आलोचना के संदर्भ में बोलते हुये नंद किशोर आचार्य ने कहा कि आलोचना से पहले रचना हमारे सामने आती है। श्री आचार्य के कथन के साथ अपनी निशर्त सहमति जताते हुये, उनके मंतव्य को मैं, अपने यहां की रचना क्षमताओं से जोड़कर ग्रहण करना चाहूंगा। इसे अपने समकालीन संदर्भ में अपने यहां हो रहे, रचना कर्म और उनकी क्षमताओं को पहिचानने का प्रयास कहा जा सकता है।
होने को तो, इस समय छत्तीसगढ़ में कविता ही कविता हो रही है। इस होने को संरक्षण मिल रहा है , राज्याश्रय मिल रहा है और वह मान-सम्मान मिल रहा है जो साहित्य का हक होता है। यह साहित्य की रचनात्मक ऊर्जा को गतिमान करता है और उसे विकास की दिशा में आगे बढ़ाता है। लेकिन छद्म शक्तियां इसे छीन रही हैं। कविता ही कविता के इस छद्म दौर में कविता को ढूंढ़ पाना दुश्कर होगा। दरअसल इस दौर में कविता को अपदस्थ करने के लिये छद्म कविता को पोशित किया जा रहा है । और यह अकेले, कविता के साथ नहीं हो रहा है बल्कि, समूचे रचनाकर्म के विरूद्ध हो रहा है। यह संरक्षणवाद का दौर हैं । संरक्षणवाद रचना और रचना की शक्तियों के विरूद्ध छद्म शक्तियों की ऐसी ही कूट रचनाएं रचता हैं । ऐसे में छत्तीसगढ़ में कविता और कविता क्षमताओं को पहिचानने का प्रयास श्रमसाध्य हो रहा है। लेकिन इसकी जरूरत अनिवार्यता की हद तक जा पहुंची है।

छत्तीसगढ़ के नामकरण के संदर्भ में हमारे पास इतिहास सम्मत साक्ष्य की जगह विभिन्न परिकल्पनाएं या हाइपोथीसिस के आधार हैं। लेकिन बस्तर से लेकर सरगुजा तक और महानदी के तटवर्ती मैदानों से लेकर मैकल पर्वतीय अंचल तक फैले भौगोलिक-सांस्कृतिक वैविध्य पर दृष्टिपात करें तो इसका सामासिक, बहुलतावादी स्वरूप हमें विस्मित भी करता है और हमारे सामने कुछ प्रस्तावित भी करता है। जहां छत्तीसों तरह की जातीय संस्कृतियां एक साथ वास करती हों और अपने परस्पर विरोधी अभिचरित्रों के साथ एक लयात्मक समन्विति में विकास कर रही हों- वह छत्तीसगढ़ ? ऐसे में छत्तीसगढ़ में कविता का अर्थ कविता में छत्तीसगढ़ की विद्यमानता का रेखांकन भी होगा। और कविता की क्षमताओं को पहिचानने के लिये यह एक सही दृष्टि भी होगी।
छत्तीसगढ़ की काव्य परंपरा लंबी है। यह वाचिक भी रही है और लिपिबद्ध भी हुई है बोलियों उप भाशाओं और भाशाओं में भी है अभी-अभी राजभाशा का दर्जा प्राप्त छत्तीसगढ़ी में भी है और हिन्दी में भी है। छत्तीसगढ़ में काव्य परंपरा की खोज करते हुये, रमेश अनुपम ने छत्तीसगढ़ में हिन्दी कविता के 600 वर्षों को रेखांकित किया है। जनजातीय काव्य परंपराएं इससे भी पुरानी होंगी जो उनके आनुश्ठानिक गीतों में कालरक्षित हैं, जो उनकी लोक गाथाओं का पारंपरिक गीतात्मक पाठ भी हैं। ‘कविता: छत्तीसगढ़’ छत्तीसगढ़ में समकालीन हिन्दी कविता पर केंद्रित है।

अपने महत्वपूर्ण संकलन ‘ जल भीतर इसका वृच्छा उपजै ‘ में 600 वर्षों की, छत्तीसगढ़ की काव्य परंपरा की खोज करते हुये रमेश अनुपम ने घनी धरमदास से शुरू करके विनोद कुमार शुक्ल तक पहुंचने वाली काव्य परंपरा को उसकी ऐतिहासिकता में संकलित किया है। छत्तीसगढ़ में समकालीन कविता के परिदृश्य को चिन्हांकित करने के लिये मैंने ‘जल भीतर इसका वृच्छा उपजै’ को, एक तरह से अपना आधार बनाया। अर्थात वहां से आगे। और इस आधार पर रमेश अनुपम के साथ खुली सहमति भी बन सकी।
इस संकलन के लिये विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं मिल सकी होतीं तो यह एक उपलब्धि होती। संकलन के लिये उपलब्धि से अलग, यह उपलब्धि उन रचनाकारों के लिये होती, जिनकी संभावनाओं को सामने लाने का एक प्रयत्न भी है - यह संकलन मेरे सदिच्छापूर्ण आग्रह के बावजूद विनोद जी की कविताएं इस संकलन में नहीं हैं। मेरी इस विफलता के बावजूद, यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि किन्हीं भी संभावनाशील कवियों का यह अधिकार बनता है कि उनका साक्षात्कार अपने समय में लिखी जा रही उन कविताओं और उनके रचयिताओं से हो जो अपने ही समय में ऐतिहासिकता का स्पर्श कर लेते हैं। अपने इस समय के ऐसे संभावनाशील कवियों के साथ खड़े होकर मैं इतना जरूर कह सकता हूं-
मैं सुन रहा था
उन युवा कवियों और शायरों को
जिनमें से कुछ
कल के नामावर होंगे
वो,सामने वाले उस कोने में
चश्मे से झांकती
एक जोड़ समझदार आंखें
सबसे कितनी अलग थीं
गहरी और पानीदार
सब कुछ इतना रूमानी
और इतना दिलकश होगा
मैं कैसे जान पाता
तुम्हारे साथ शामिल हुये
बिना ...’
शामिल होने में मेरा विश्वास, शायद आस्था की हद तक है। फिर भी इस विश्वास को कभी-कभार, या अक्सर, अस्पृश्यता की हद तक असहमतियों का सामना करना पड़ता है। यहां भी ऐसा हुआ है। एक युवा मित्र के मन में आशंका घर कर गई, या पूर्वाग्रह पनप गया कि यह संकलन चुटकुलों में कविताओं की संभावना तलाशने का प्रयास होगा। इस समय, जब चुटकुलों की दुकानदारियां फल-फूल रही हैं और विदूशक राज सम्मान पा रहे हैं, ऐसी आशंका के घर करने को या पूर्वाग्रह के पनपने को निर्मूल नहीं कहा जा सकता। केवल एक भरोसा दिलाया जा सकता है कि यह एक वक्ती दौर है, गुजर जायेगा। अभी कुहासा है, छंट जायेगा। तब तक इंतजार करना होगा।

मैं इससे इंकार नहीं कर सकता, न अपनी तरफ उठने वाली किन्हीं उंगलियों के अंदेशे से बच सकता कि शामिलात को निभाने की कोशिश में हुये कुछ समझौते भी यहां नजर आयेंगे। ऐसा, भावनाओं का ख्याल रखने से अधिक, भौगोलिक-सांस्कृतिक संतुलन के लिहाज से भी जरूरी था। उन स्थानीयताओं को समझ कर चलें, जिनके सामाजिक परिवेश में रचनाकर्म के लिये जगह कम होती हैं, तो कविताओं का एक अलग मानक हमारे सामने होगा। और यह मानक, शामिलात की कोशिश को कुछ हद तक मंजूरी दिला सकेगा। यह मंजूरी उन कुछ गीतों पर भी अपने-आप लागू हो जायेगी, जिनके लिये इस कविता संकलन की नियोजित रूप-रेखा से बाहर जाकर जगह बनानी पड़ी अच्छा तो यह होता कि गीत और गजलों का कोई पृथक संकलन होता। इसी तरह, इस संकलन में छत्तीसगढ़ी कविता के साथ एक प्रातिनिधिक परिचय के तौर पर एक मात्र मंगत रवींद्र की कविताएं शामिल हैं। मंगत रवींद्र, लोक साहित्य के लिये, साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कवि हैं।

इस संकलन की नियोजित रूपरेखा पांच भौगोलिक-सांस्कृतिक खंड़ों में प्रस्तावित थी। बस्तर का आदिवासी समूह, सरगुजा-जशपुर-कोरिया का आदिवासी समूह, महानदी की सीमारेखा के साथ वाला मैदानी क्षेत्र, भिलाई-कोरबा तथा रायगढ़ के औद्यौगिक क्षेत्र तथा शेश मैदानी इलाका जिसे मुख्य भूमिया मेनलैंड की तरह देखा जा सकता है हमारी रचना-अनुभूतियों को ये भौगोलिक-सांस्कृतिक विविधताएं, अपनी-अपनी स्थानिकताओं के साथ किस तरह उकसाती हैं और कविता में प्रकट होती हैं ? इसे देखने-समझने के लिहाज से मुझे यह विभाजन ठीक लगा था। बल्कि यह विचार मुझे उत्साहित भी कर रहा था कि इस विभाजन में छत्तीसगढ़ की सामासिकता के रंग अपने पूरे विरोधाभास; कांट्रास्टद्ध में खिलकर उभरंगे और कविता की संरचना में स्पंदित होते हुये मिलेंगे। लेकिन, बाद में यह आशंका भी मन में घर करने लगी कि ऐसे में भावनात्मक विभाजन का खतरा हो सकता है, यह विभाजन क्षेत्रीयतावादी आग्रहों के लिये जगह दे सकता है। खास तौर पर आपाधापी के इस दौर में, जब जातीय वर्चस्ववादिता के लिये भाशा और साहित्य को अपना एक कारगर औजार बनाने की राजनीतिक कुत्सा बिना किसी संकोच के सामने आ रही है। प्रस्तावित पांच खंड़ों में विभाजित इस संकलन की पूर्व नियोजित रूपरेखा में मुझे अलगाव की जोखिम नजर आयी। और मैं वह जोखिम नहीं ले सका। अब बस्तर से लेकर सरगुजा तक, महानदी के तटवर्ती मैदान से लेकर मैकल पर्वत श्रंखलाओं तक और रतनपुर से लेकर सिरपुर की ऐतिहासिकता तक छत्तीसगढ़ के भौगोलिक विस्तार को उसके सांस्कृतिक विकासात्मक चरित्र में समेटते हुये-यह संकलन यहां के शताधिक कवियों के एक समग्र परिवार का रचना संदर्भ है।

इसमें छत्तीसगढ़ के वे कवि भी शामिल हैं जो यहां रह रहे हैं और रच रहे हैं, वे भी शामिल हैं जो अभी कहीं और रह रहे हैं और छत्तीसगढ़ को जी रहे हैं। इनके साथ एक कवि ऐसा भी है जो यहां आया और जब यहां आकर वापस लौटा तो छत्तीसगढ़ की अनुभूतियों को अपने साथ ले गया और एवज में अपना मन यहां छोड़ गया। ‘रायपुर के लिये ‘ लिखी गई ओम भारती की कविता में उनके, यहां छूट गये मन का पता मिलता है। ओम भारती का जिक्र इसलिये भी करना पड़ रहा है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद, यहां के कवियों को एक साथ संकलित करने का विचार, संभवतः सबसे पहले उनके पास ही आया। छत्तीसगढ़ के कवियों पर केंद्रित ‘ आकंठ’ ;पिपरिया-म.प्र.द्ध के अंक का संपादन ओम भारती ने ही किया। छत्तीसगढ़ के इस रचना संदर्भ में प्रभात त्रिपाठी भी हैं, जो कहीं जाकर, वापस घर लौटे हैं। सच ये है कि प्रभात, कहीं जाकर भी कहीं जा नहीं सके थे, बार-बार यहां लौट रहे थे और यहीं बने हुये थे। उनको हीं रहना था। उनकी अच्छी पे्रम कविताओं को यहीं होना था। वाद और विमर्शों में विभक्त हमारे साहित्य के काल विभाजन में एक वह समय भी दर्ज होगा, जब पे्रम को खारिज करने की हद तक निशेध किया गया। तब भी प्रभात के पास पे्रम का अध्यात्म उनकी कविता में अपने भाश्य रच रहा था मेरी दृष्टि में प्रभात त्रिपाठी की मौजूदगी संस्कारों और इतिहास बोध के एक बड़े कवि की मौजूदगी है जो छत्तीसगढ़ में कविता की समृद्धि को रेखांकित करती है।

मुझे ध्यान नहीं आता कि छत्तीसगढ़ में कविता की बात करते हुये हमने विनोद वर्मा और निधीश त्यागी की कविताओं पर कभी ध्यान दिया। यह बेध्यानी किसी को भी हैरान और परेशान कियेे बिना नहीं रहेगी। इस संकलन में एक ऐसी कविता भी शामिल है जो उस कवि की, अब तक की, अकेली कविता है सिरजन । ‘ सिरजन 1 ‘ हिन्दी में है और ‘सिरजन-2’ छत्तीसगढ़ी में। सामान्य तौर पर छत्तीसगढ़ी में अब तक जो कविताएं हमारे सामने आती रही हैं वे प्रायः छत्तीसगढ़ की भौगोलिक संरचना और वंदना की भावनात्मक कविताएं रही हैं। यद्यपि, छत्तीसगढ़ी भाशा आंदोलन के साथ अपनी वैज्ञारिकता और क्रियात्मक सक्रियता में जुडे़ हुये नंद किशोर तिवारी इस चिन्ता के साथ सहमत हैं कि किसी भी भाशा के विकास और उसके उत्कर्श को हम उसकी साहित्य रचना में देखते हैं। राहुल कुमार सिंह की इस कविता- ‘सिरजन’ में वह उत्कर्श, या कम से कम उस उत्कर्श के लिये चेश्टा, लक्षित होती है। इस कविता का एक आयाम लौकिक है। उस कलाकार की रचना-गढ़ना को हम देख पा रहे हैं। इसका एक आयाम पार-लौकिक है। यह हमें ले जाकर उस सिरजनहार से जोड़ता है हम जिसकी रचना हंै।

संजीव बख्शी की ‘खैरागढ़ में कट चाय और डबल पान’ छत्तीसगढ़ के साथ हमारे नोस्टेज्जिक रिश्तों और सामाजिक परिवेश का आकारिक चित्रांकन भी है और छत्तीसगढ़ की हमारी पारंपरिक सामाजिकता की सघन अनुभूति भी है। मानव-अधिकारवादी धारणाओं से संचालित विभिन्न विमर्शो में विभक्त हमारे सरोकारों में छत्तीसगढ़ कहां है या छत्तीसगढ़ के संदर्भ में किस विमर्श की भूमिका बन रही है ? इसे ध्यान से देखें तो यहां आदिवासी विमर्श की जमीन तैयार होती दिख जायेगी।

छत्तीसगढ़ी के आदिवासी संदर्भ अब तक, मोटा-मोटी, बस्तर केंद्रित रहे हैं। और बस्तर, वैरिअर एल्विन की नृतत्वशास्त्रीय दृष्टि से बंधा हुआ रहा है। या फिर नक्सलवाद के पक्ष-विपक्ष का उलझाव रहा है। अब, आदिवासी विमर्श में हमारे सरोकार किस तरह परिलक्षित होंगे-क्या उनमें मानवीय संवेदनाओं, अपने समय के साथ चलने की इच्छाओं, अपनी स्मृतियों को सहेजने, अपने निर्णय लेने की खुद मुख्तारी के लिये सम्मानपूर्ण जगह होगी ? यह अभी देखा जाना है। अभी तो यहां के आदिवासी भूगोल को, उसके ठीक-ठाक सीमांकन में समझना पहली प्राथमिकता होगी। इसमें सरगुजा है, कोरिया है, जशपुर का अंचल है, पूर्व की तरफ कमार जनजाति और पश्चिम की तरफ बैगा जनजाति के रिहायशी इलाके हैं ।
जशपुर अंचल के एक छोटे से गांव-मेण्डेर बहार की अन्ना माधुरी तिर्की की कविताएं स्मृतियों को सहेजती हैं, समय के साथ चलती हैं, अपने निर्णय लेने की खुद मुख्तारी इनमें मिलती हैं। और ये कविताएं हैरान करती हैं कि इससे पहले यह, अन्ना माधुरी तिर्की कहां थी ? उसकी कविताएं सीधे इस संकलन में आई हैं। इससे पहले इस उरांव युवती की कविताएं अन्यत्र कहीं प्रकाशित नहीं हुई थीं। अपने, कवि परिवार के यथा-संभव सभी जनों को एक साथ जोड़ने का विचार मेरे लिए आह्लादकारी था। भावनात्मक भी था। इसलिये, पहले से बनी किन्हीं पसंदगियों-नापसंदगियों, आग्रह-दुराग्रहों से हटकर, मैंने खुले मन से प्रयास किया। फिर भी कुछेक जगह अपनी विश्वसनीयता का विश्वास नहीं करा पाया।

एक वृहत परिवार में सबके महत्व और उनकी वरीयता के क्रम निर्धारित करना भी श्रमसाध्य होता है। इसका आसान तरीका यह हो सकता था कि जन्म तिथियों को आधार मान लिया जाये। यह इतिहास क्रम में होता। लेकिन इसमें अमुक व्यक्ति की पहिचान होती, उसके रचनाकार-व्यक्तित्व की नहीं। रचनाकार व्यक्तित्व तो बाद का निखार होता है। यह एक अर्जित तिथि होती है। फिर भी, आज हमारे पास, इस संकलन के तैयार होते तक, संभवतः सबसे वयोवृद्ध कवि बस्तर के लाला जगदपुरी होंगे। उनकी कविताएं इस संकलन में नहीं हैं। इन दिनों वे अशक्त हैं और नया कुछ नहीं लिख पा रहे हैं। पहले की अपनी कोई कविता भेजने के बदले उन्होंने अपनी शुभकामनाएं भेजीं।
यह संकलन अपने कुछ और वरिष्ठनजनों की कविताओं से वंचित है। ऐसे में; भी, जन्म तिथि को वरीयता का आधार बनाना एक आधा-अधूरा आधार होता। वर्ण क्रम से चलना एक आसान रास्ता सूझा। रचना संकलन में मुझे त्रिभुवन पांडेय से जो सहयोग मिला, यहां उसका उल्लेख जरूरी ठहरता है। कविताओं के प्रारंभिक चयन में डॉ. हेमचंद्र पांडेय ने मेरा हाथ बंटाया। इन दोनों के प्रति मैं आभारी हूं। इस संकलन के लिये, समग्र रूप से, छत्तीसगढ़ राज्य के संस्कृति विभाग ने अनुदान दिया। वह उल्लेखनीय है। उक्त अनुदान के बिना इस संकलन की योजना, योजना ही रह जाती।

- सतीश जायसवाल

1 comment:

विनोद साव said...

अरे टिप्पणी करो भाई.. हाकहां हैं कविगण .. सब कविता कर रहे हैं लगता है. हं**?

Post a Comment